अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धांत (Principle of Maximum Social Advantage)


अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धांत राजस्व का एक मूलभूत सिद्धांत है। यह सिद्धांत उस मान्यता पर आधारित है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति अपनी आय को इस प्रकार व्यय करता है कि उसे अधिकतम व्यक्तिगत लाभ प्राप्त हो उसी प्रकार राज्य को भी इस प्रकार व्यय करना चाहिए जिससे अधिकतम समाजिक लाभ प्राप्त हो सके परंतु प्रश्न यह है राज्य अपने राजस्व संबंधी क्रियाओ का संचालन किस प्रकार करे ताकि इस उदेश्य की प्राप्ति हो ? राज्य जिस सिद्धांत के आधार पर आय - व्यय का सीमा निर्धारण करती है। उसे Fundamental Principle of Public Finance (राजस्व का मूलभूत सिद्धांत) कहते है और Dalton  ने इसे Principle of Public Finance कहा है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक राज्य को अपनी कर नीति इस तरह से बनानी चाहिए कि समाज के अधिक व्यक्तियों को लाभ हो। इससे राजस्व के भौगोलिक उदेश्यो की प्राप्ति होती है। Prof. Dalton ने अपनी पुस्तक ‘Public Finance’ मे स्पष्ट कहा है कि –“राजस्व की सर्वोतम पद्धति वहीं है जिसकी क्रियाओ से अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार Pigou ने भी स्वीकार किया है की –“जहां तक राजनीति सिद्धांत का संबंध है अधिकतम सामाजिक कल्याण सभी जगह राज्य का सही उदेश्य स्वीकार किया जाता है।वस्तुतः अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धांत आधुनिक युग में विकसित हुआ है। यह एक मापदंड प्रस्तुत करता है कि आय एंव व्यय की क्या समानता होनी चाहिए। प्रत्येक सरकार जनता पर कर लगती है और पुन: इसे जनता के हितों पर व्यय करती हैं आय व व्यय को समानान्तर करने में यह सहायक है। प्राचीन समय मे इसकी आवश्यकता नहीं थी क्योकि एक राज्य कि क्रियाएँ देश कि सुरक्षा तथा आंतरिक शांति तक ही सीमित थी। यही कारण है कि प्राचीन अर्थशास्त्रीयों ने प्रत्येक कर को एक अभिशाप कहा हैं। उनका विचार था कि राज्य को कर कम-से-कम वसुल करना चाहिए तथा कम-से-कम व्यय करना चाहिए। Ricardo ने कहा था कि – “यदि आप शांतिपूर्ण सरकार चाहते है तो आपको बजट को कम करना चाहिएउन्होने J. B. Say के इस कथन का समर्थन किया था कि- अर्थ प्रबंध कि वही योजना सबसे उपयुक्त है जिसमे न्यूनतम व्यय किया जाता है और सब करों मे वहीं सबसे अच्छा है जिसकी मात्रा सबसे कम है।

                                 परंतु प्राचीन अर्थशास्त्रीयों के विचार में परिवर्तन लाकर आधुनिक अर्थशास्त्रीयों  ने आर्थिक विकास एंव राज्य कि बढ़ती हुई आर्थिक क्रियाओं को देखते हुए एक ऐसे सिद्धांत कि खोज कि जो राजस्व के क्रियाओं के बीच सामंजस्व स्थापित कर सकें। राज्य विभिन्न कारणों से जनता पर कर लगती है कर लगती हैं कर देते समय जनता अनुपयोगित का अनुभव करती है दूसरी ओर अगर राज्य द्वारा सार्वजनिक व्यय किया जाता है तो उसे उपयोगिता करों से प्राप्त अनुपयोगिता कम कर देती है आय और व्यय के इस संबंध को बनाए रखने के लिए एक ऐसे सिद्धांत कि आवश्यकता का अनुभव किया गया जिससे सामाजिक लाभ अधिकतम होती है जहाँ कर द्वारा उपलब्ध सीमांत अनुपयोगिता सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमांत अनुपयोगिता के बराबर होती है।

इस प्रकार हम देखते है कि सरकार को अपनी आय – व्यय इस ढंग से अपनी करनी चाहिए कि जनता को अधिक से अधिक कल्याण हो। यह सिद्धांत उपयोगिता बढ़ जाती है। इस प्रकार जनता के कल्याण पर किए गए व्यय से प्राप्त उपयोगिता व्यय में उपरोक्त वृद्धि के साथ घटती जाती है और एक ऐसा बिन्दु आता है जिसपर एक अतिरिक्त व्यय की ईकाई से प्राप्त संतोष ठीक उस ईकाई को कर के रूप में प्राप्त करने से उत्पन्न त्याग के बराबर हो जाता है और उसी बिन्दु पर सरकार को रुक जाना चाहिए क्योकि इस बिन्दु पर कर की सीमांत अनुपयोगिता और व्यय से प्राप्त सीमांत उपयोगिता एक दूसरे के बराबर हो जाते है जो एक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है -   

इस प्रकार से तालिका से स्पष्ट है की जैसे-जैसे कर की ईकाई बढ़ते जाता है वैसे-वैसे कर का समाज पर बोक्ष अधिक पड़ता है और सार्वजनिक व्यय के अतिरिक्त ईकाई से उपयोगिता कम होते जाती है जहाँ पर कर उत्पन्न सीमांत अनुपयोगिता और व्य्य से सीमांत उपयोगिता दोनों बराबर हो उस बिन्दु से आगे कर नहीं लगाया जाना चाहिए और इसी चौथी बिन्दु पर सीमांत अनुपयोगिता और सीमांत उपयोगिता दोनों बराबर हो जाते जिसे रेखा चित्र से स्पष्ट कर सकते है - 
इस चित्र में OX रेखा पर आय एंव व्यय OY रेखा पर उपयोगिता तथा अनुपयोगिता को दिखलाया गया है। MDU रेखा करो की सीमांत अनुपयोगिता को तथा MU  रेखा व्यय की सीमांत उपयोगिता दिखलता है।  सीमांत अनुपयोगिता की रेखा ऊपर उठती हुई रेखा है क्योकि जैसे जैसे कर की मात्रा बढ़ती है करदाता के लिए सीमांत अनुपयोगिता बढ़ती जाती है। दूसरी ओर जैसे-जैसे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है सीमांत उपयोगिता घटती जाती है और रेखा नीचे की ओर गिरती है। ये दोनों रेखाएँ एक-दूसरे को P बिंदु पर कटती है अत: PM  को अधिकतम सामाजिक लाभ को प्रदर्शित करती है इस बिंदु से कम या अधिक की स्थिति होने पर अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करना संभव नहीं हो सकेगा और इस बिंदु पर सीमांत उपयोगिता एंव सीमांत अननुपयोगिता दोनों बराबर होते है और समाज को अधिकतम लाभ की प्राप्ति होती है।

अधिकतम सामाजिक लाभ की कठिनाईया/सीमाएं (Limitation of the Principle of Maximum Social Advantage) –

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धांत एक मूलभूत सिद्धांत है तथा इसमे कोई भी सौद्धांतिक त्रुटि प्रतीत नहीं होता तथापि इस सिद्धांत को प्रयोग करने मे अनेक व्यवहारिक कठिनाईया है जो निम्नलिखित है-

1.  सीमांत उपयोगिता एंव सीमांत अनुपयोगिता की माप करना कठिन है- सरकार के लिए करों से उत्पन्न अनुपयोगिता तथा व्यय से प्राप्त सीमांत उपयोगिता में संतुलन लाना कठिन है क्योकी उपयोगिता तथा अनुपयोगिता एक मनौवैज्ञानिक धारणा है जिसका अनुमान लगाना कठिन है।

2.  उपयोगीता की माप की कठिनाईया  सार्वजनिक व्यय से प्राप्त उपयोगिता का माप करना कठिन है ऐसा इसलिए होता है की सार्वजनिक व्यय होने से उपयोगिता मे वृद्धि को कैसे जाना जा सकता है की जनता को सरकार द्वारा पूर्ति की गई वस्तुओ से कितना लाभ हुआ है जिसका माप करना कठिन है।

3.  आय एंव व्यय का संबंध- सरकारी वितीय व्यवस्था की एक मौलिक व्यवस्था यह है की पहले व्यय का अनुमान लगाया जाता है और बाद मे आय का यदि व्यय के पूर्ति के लिए आवश्यक मात्रा में प्राप्त न हो तो आनुपातिक रूप से व्यय में कटौती की जाती है इन दोनों परिस्थितियों मे कर का भार या अनुपयोगिता का पता लगाना कठिन है।

4.  वर्तमान त्याग एंव भावी उपयोगिता की समस्या- सरकारी क्षेत्र में अनेक ऐसे व्यय होते है जो वर्तमान में लिए जाते है लेकिन उनका लाभ हम भविष्य मे प्राप्त करते है। अत: भावी आय पर अधिकतम सामाजिक कल्याण का पता लगाना कठिन है।

5.  राज्यस्व संबंधी क्रियाओ पर आर्थिक घटको का प्रभाव- यदि हम इस बात को स्वीकार भी कर ले तो उपयोगिता एंव त्याग की माप और उनकी तुलना भी की जा सकती है तो भी इस सिद्धांत व्यवहारिक में कठिनाईया है।

6.  विभिन्न करों के भर का निर्धार्ण कठिन है- सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार के कर लगाये जाते है। इनमे से प्रत्येक कर का भार कितना पड़ता है। यह आसानी से ज्ञात नहीं किया जा सकता।

परंतु इन कठिनाईयो के बावजूद यह सिद्धांत अनेक सामस्याओ के सामाधान में सहायता करता हैं। Hicks का विचार है की राजस्व की किसी भी नीति को निर्मित करते समय दो बातों को आधार बनाना चाहिए- उत्पादन स्तर और उपयोगिता स्तर। इसके लिए उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि तथा उत्पादन का उचित वितरण होना चाहिए। जिससे जनसाधारण की आवश्यकताओ की स्ंतुष्टि मिल सके अगर इनका प्रयोग किया जाए तो सिद्धांत का सफल संचालन हो सकता है इसलिए Dalton ने एक यूनानी कहावत की याद दिलाई है- सरल चीजे नहीं बल्कि कठिन चीजे ही सुंदर हुआ करती है।अत: निष्कर्ष के रूप मे अनेक कठिनाईयाहै परंतु अनुभव तथा संखियकी आकड़ों के द्वारा इन कठिनाईयों को दूर किया जा सकता है।