करो मे न्यायशीलता के आधार पर करारोपन के अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है इन सिद्धांत मे सेवा लागत और लाभ का सिद्धांत उल्लेखनीय है-


सेवा की लागत सिद्धांत (Cost of Service Principle) 

इस सिद्धांत के अनुसार सरकार जो सेवाएँ जनता को उपलब्ध कराती है उनके लागत के अनुपात मे ही करदाताओ पर कर लगाना चाहिए। दूसरे शब्दो मे सरकार नागरिक के लिए अनेक प्रकार की सेवाएँ जैसे- शिक्षा, चिकित्सा आदि पर अधिक सार्वजनिक व्यय करना पड़ता है। अत: सरकार को इन सेवाओ के अनुसार ही कर लेना चाहिए। Prof. A. G. Bachler के अनुसार इनके लेखको का सुक्षाव है की करो को सरकार द्वारा प्रदान की गई सेवाओ को लागत के आधार पर लगाया जाना चाहिए। सेवा लागत सिद्धांत के संबंध मे Dalton का कहना है कि “इस प्रकार सेवा कि लागत का सिद्धांत चाहे सिद्धांत मे कितना ही न्यायसंगत क्यो न हो इसका वृहत व्यावाहरिक दोष है इनके विरुद्ध निम्न आलोचनाएँ दी गई है-

1. सिद्धांत का व्यावहारिक न होना – इस सिद्धांत कि आलोचना करते हुए कहा गया है कि यह सिद्धांत व्यावहारिकता के विपरीत है। इसका उपयोग तभी किया जा सकता है जब राज्य कुछ सेवाएँ प्रदान कर सकता है परंतु बहुत कर ऐसे होते है जो बिना सेवाओ के लिए जाते है पुनः किस सेवा का लागत मूल्य कितना होगा इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होगा।

2. कर परिभाषा मे विपरीत – करो कि परिभाषा के अनुसार यह कहा गया है कि यह एक आवश्यक  अंशदान है इसका निर्धारण सामान्य हित के लिए किया जाता है इसलिए करो को सेवा कि लागत के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।

3.सार्वजनिक हितार्थ सेवाएँ – लोक कल्याणकारी राज्य मे कुछ सेवाएँ ऐसी होती है जिनका मूल्य नहीं लिया जाता जैसे- शिक्षा, स्वास्थ, पेंशन इत्यादि जो किसी भी सरकार को देनी पड़ती है इसी प्रकार निर्धन वर्ग को अनेक सेवाएँ दी जाती है और ऐसी स्थिति मे इन्ही लोगो पर कर लगा दिया जाए तो यह सिद्धांत तथ्यहीन है।

4.शांति एंव सुरक्षा संबंधी सेवाएँ – सेवा की लागत का सिद्धांत शांति तथा सुरक्षा जैसे कार्य पर किए गए लागत के बराबर अगर कोई सरकार कर वसूलने लगे तो व्यक्तियों को लाभ के बदले अधिक हानि होगी।

उपयुकत दोषों के कारण इस सिद्धांत का व्यवहारिक महत्व कम है यह ठीक है की बिजली, रेल, डाक आदि सेवाओ की लागत का अनुमान लगाया जा सकता है किन्तु हमे ध्यान रखना चाहिए की ये विशेष सार्वजनिक सेवाएँ है और इनके मूल्य को हम फीस कहते है न की कर। अत: हम निष्कर्ष पर आते हैं कि इस सिद्धांत का कोई भी व्यवहारिक महत्व नहीं है।

लाभ का सिद्धांत (Benefit of Taxation Theory)

लाभ का सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि सरकार जनता के भलाई के लिए अनेक ऐसे कार्यो को करती हैं जिनके बदले मे वह कर लगती है यानि करो का भुगतान उन्ही कार्यो के बदले मे किया जाता है। अत: लाभ का सिद्धांत यह बताता हैं कि वह प्रणाली को न्यायपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि करदाताओं द्वारा करो के रूप मे दी जाने वाली राशि उनके द्वारा सरकार से प्राप्त लाभ के अनुपात मे हो। इस सिद्धांत कि क्षलक प्रक्रतिवादी अर्थशास्त्रीयों के लेखो तथा राजनीतिक विचारक Hobbes, Locke, Rousseau तथा Hume कि कृतियो मे भी मिलता हैं और इसे Adam Smith ने भी इस सिद्धांत का समर्थन किया हैं और उनके अनुसार – “प्रत्येक राज्य कि प्रजा को सरकार के सहयोग के लिए जहाँ तक संभव हो सके अपनी आमदनी के अनुपात मे न्यायसंगत प्रतीत होता है।

इस प्रकार लाभ का सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि करदाताओ द्वारा दी जाने वाली कारों से प्राप्त होने वाली लाभ के बराबर होता है जिस प्रकार सार्वजनिक सेवाओ का मूल्य सीमांत उपयोगिता के बराबर होता हैं उसी प्रकार सरकार द्वारा दिए गए लाभों को मापन भी करो मे किया जाए तो उचित प्रतीत होता है। Prof. R. A. Musgrave ने कहा है कि यह सिद्धांत लाभ के विषय मे योग्यता के समावेश पर न्यायशीलता का प्रतिपादन करता हैं इटली के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री De Macro के इस सिद्धांत का समर्थन किए हैं। आज के अर्थशास्त्री भी Ability to Pay Theory (करदान योग्यता) के अंतर्गत लाभ के सिद्धांत का समर्थन करते है और Adam Smith ने भी कहा है कि – “प्रत्येक राज्य कि प्रजा को सरकार के सहयोग के लिए जहाँ तक संभव हो सके अपनी सापेक्षिक योग्यता के अनुसार कर देना चाहिए अर्थात उस आमदनी के अनुपात मे जो वे सरकार के संरक्षण मे रहकर प्राप्त करते है।” वास्तव मे करारोपण का लाभ सिद्धांत न्यायसंगत प्रतीत होता है क्योकि यह हमारे समक्ष कर का एक मौलिक आधार प्रस्तुत करता हैं इससे पता लगाया जा सकता हैं और इसी के आधार पर कर लगाया जा सकता हैं। इस सिद्धांत के निम्नलिखित गुण है-

1.लाभ के सिद्धांत मे आय एंव व्यय के समावेश किया जाता है और साथ ही साथ बजट के दोनों पक्षो पर ध्यान रखा जा सकता हैं।

2. इस तथ्य को भी स्पष्ट करता हैं कि करो का औचित्य सार्वजनिक सेवाओ से प्राप्त होता हैं।

3.जहाँ व्यक्तिगत लाभ कि माप कि जाती है वहाँ इस सिद्धांत का प्रयोग असानी से किया जा सकता हैं।

लेकिन इस गुण के बावजूद लाभ सिद्धांत कि बहुत सी आलोचनाएँ दी गए है तथा इसमे अनेक दोष बताये गये हैं इस सिद्धांत कि निम्नलिखित आलोचनाएँ दी गई है-

1. माप की कठिनाईया – लाभ के सिद्धांत का यह एक दोष है की किस व्यक्ति को सरकार के किस कार्य से कितना लाभ मिलता है यह मापना कठिन है किसी भी सरकार का मूल्य उद्देश्य समाज को लाभ पहुँचाना है लेकिन लाभों को मापकर करारोपण नहीं करना चाहिए।

2. अन्यायपूर्ण - यदि लाभ के सिद्धांत पर सरकार गरीबों, अपाहिचों और बूढ़ों पर कर लगाये तो इससे एक हाथ से लेने और दूसरे हाथ से देने वाली कहानी चरितार्थ होती हैं।

3. आय की समानता - इस सिद्धांत के द्वारा वितरण मे समानता नहीं लायी जा सकती हैं जबकि करो का उद्देश्य आर्थिक समानता स्थापित करना होता हैं परंतु इस सिद्धांत से संभव नहीं हो पाता।

4.विनिमय संबंध का अभाव – यह सिद्धांत उस समय अनुकूल था जब राज्य और नागरिक के बीच विनिमय संबंध था लेकिन आजकल जनकल्याण के लिए सेवाओं को प्रजनन करने मे विनिमय संबंध स्थापित नहीं होता।

5. सीमांत प्रयोग – लाभ के सिद्धांत का प्रयोग केवल कुछ सीमांत अवस्थाओ मे किया जाता है जहाँ नागरिक को कुछ विशेष अथवा अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त हो रहे हैं।

6. राज्य के कार्य क्षेत्र का सीमांत होना लाभ के सिद्धांत के अनुसार राज्य को व्यय करने से पूर्व अनुमान लगाना होगा कि जिस यजना का प्रारूप बनाया जा रहा है उसमे खर्च होने वाली राशि के बराबर आय प्राप्त हो सकेगी अथवा नहीं प्राय: सरकार व्यय करने से पूर्व जिस योजना पर खर्च करती है वह लाभों का नहीं आकती।

इस प्रकार इस सिद्धांत मे यधपि कुछ विशेष गुण है फिर भी इसके दोषो कि संख्या काही अधिक है और वे दोष निश्चय ही इस सिद्धांत के महत्व को कम कर देते हैं अत: इस सिद्धांत का अब व्यवहारिक महत्व नहीं रह गया है और इनका व्यवहार कुछ इनेगिने अव्यवस्थाओ मे ही होता है इसलिए Prof. B.R. Mishra ने कहा है – यह सिद्धांत व्यवहारिक प्रयोग मे असफल हो जाता है।