प्रस्तावना का सविंधान में क्या महत्व है। भारतीय सविंधान की प्रस्तावना के मुख्य लक्षण को लिखे।

भारत का सविंधान सबसे बड़ा एवं लिखित सविंधान हैं और विश्व के अन्य सविंधानो के भांति इसका भी प्रस्तावना हैं जो इस प्रकार हैं -

“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न,

समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए

तथा उसके समस्त नागरिको को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,

धर्म और उपासना की सवंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता

प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में

व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली

बंधुता बढ़ने के लिए

दृढ़-संकल्प होकर अपनी इस सविंधान सभा में आज तारीख

26 नवंबर, 1949 ई० (मिति मार्ग शीर्ष शुल्क सप्तमी, संम्वत् दो हजार छह विक्रमी)

को एतद् द्वारा इस सविंधान सभा को अंगीकृत, अधिनियमित और

आत्मार्पित करते हैं।”

à 9 DEC 1946 ई० को डॉ० सच्चिदानंदसिन्हा सविंधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष बने।

à 11 DEC 1946 ई० को डॉ० राजेंद्र को सविंधान सभा के स्थायी अध्यक्ष बने।

à 13 DEC 1946 ई० को सविंधान सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरु द्वारा उदेश्य प्रस्ताव किया गया जिसके अंतगर्त सविंधान की प्रस्तावना निहित हैं।


* प्रस्तावना के चार अंग –

i. सविंधान के अधिकार का स्त्रोत – भारत के लोगो में

ii. भारत की प्रकृति – सम्प्रभुत्व, लोकतान्त्रिक, गणराज्य

iii. सविंधान के उदेश्य – न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व

iv. सविंधान लागु होने की तिथि – 26 नवंबर, 1949

* प्रस्तावना के मुख्य शब्द / उदेश्य –

1. सविंधान के उदेश्यों का ज्ञान – प्रस्तावना के द्वारा सविंधान के उदेश्यों का भी पता लगता हैं। भारतीय सविंधान की प्रस्तावना में पाँच महत्वपुण उदेश्यो अथवा आदर्शो को सम्मिलित किया हैं जो इस प्रकार हैं – न्याय, स्वंतंत्रता, समता, बंधुत्व और राष्ट्रिय एकता।

2. हम भारत के लोग – हमारा सविंधान हम भारत के लोग से शुरू होता हैं जिसका अर्थ है भारत भूमि के अंतर्गत रहने वाले सभी नागरिक इस सविंधान के निर्माण करते हैं।

3. सम्प्रभुत्व – सम्प्रभुत्व शब्द का आशय है कि किसी भी प्रकार का बाह्य शक्तियों का नियंत्रण नही हो अर्थात् भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र होगा जिसके ऊपर किसी भी प्रकार के बाहरी शक्तियों का नियंत्रण नही होगा।

4. समाजवादी – भारतीय समाजवाद लोकतांत्रिक समाजवाद है न की साम्यवादी समाजवाद जिसे राज्याश्रित समाजवाद भी कहा जाता हैं। जिसमे उत्पादन और वितरण के सभी साधनों का राष्ट्रीकरण और निजी सम्पति का उन्मूलन शामिल हैं। लोकतांत्रिक समाजवाद मिश्रित अर्थव्यवस्था में आस्था रखता हैं, जहाँ सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र साथ -साथ मौजूद रहता हैं।

5. धर्मनिरपेक्ष – भारतीय सविंधान में धर्मनिरपेक्ष की सभी आवाधारणाए विधमान हैं अर्थात् हमारे देश में सभी धर्म समान है और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त हैं।

6. लोकतांत्रिक – सविंधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था की परिकल्पना की गयी हैं। यह प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत  पर आधारित हैं अर्थात् सर्वोच्च शक्ति जनता में निहित हैं।

7. गणतंत्र – भारतीय सविंधान की प्रस्तावना में गणतंत्र का अर्थ यह है कि भारत का प्रमुख अर्थात् राष्ट्रपति चुनाव के जरिए सत्ता में आता हैं। उसका चुनाव पाँच वर्ष के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता हैं।

गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं। पहली है कि राजनैतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के होने के बजाए लोगो के हाथ में होती हैं और दूसरी, किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति।

8. न्याय – प्रस्तावना में न्याय तीन विभिन्न रूपों में शामिल हैं – सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक। इनकी सुरक्षा मौलिक अधिकारों व निति निर्देशक सिद्धांत के विभिन्न उपबंधो के जरिए की जाती है।

सामाजिक न्याय का अर्थ है – हार व्यक्ति के साथ जाती, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव किए समान व्यवहार।

आर्थिक न्याय का अर्थ – आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नही किया जायेगा। इसमें सम्पदा, आय व सम्पति की असामनता को दूर करना भी शामिल हैं।

राजनितिक न्याय का अर्थ - राजनितिक न्याय का अर्थ हैं कि हर व्यक्ति को समान राजनितिक अधिकार प्राप्त होंगे चाहे वो सरकारी नौकरी हो या निजी, अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का अधिकार।

9. स्वंतत्रता – स्वंतत्रता का अर्थ है लोगो की गतिविधियों पर किसी प्रकार की रोक-टोक की अनुपस्थिति तथा साथ ही व्यक्ति के विकास के अवसर प्रदान करना।

10. समता – समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध।

11. बंधुत्व – बंधुत्व का अर्थ “भाईचारे की भावना” सविंधान एकल नागरिकता के एक तंत्र के माध्यम से भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता हैं।

* प्रस्तावना का महत्व – सविंधान की प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनितिक धार्मिक व नैतिक मौलिक कर्तव्य का उल्लेख हैं जो हमारे सविंधान के आधार हैं। निःसंदेह प्रस्तावना सविंधान का अमूल्य अंग हैं और सविंधान की कुँजी भी हैं। इसके आलावा सविंधान न केवल इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें शासन की समस्त शक्तियों का श्रोत जनता को बताया गया हैं जनता ही केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों को चुनती हैं।